Description
वर्तमान समय में मानवजाति क्रमविकास के संकटकाल में से गुजर रही है जिसमें उसकी नियति का एक चयन छिपा है; क्योंकि एक एेसी अवस्था आ चुकी है जहाँ मानव-मन किन्हीं दिशाओं में बहुत अधिक विकसित हो चुका है जब कि अन्य दिशाओं में वह अवरुद्ध और भ्रमित खड़ा है और अपना मार्ग नहीं खोज पा रहा है। मनुष्य के नित्य-सक्रिय मन और प्राण-इच्छा ने अपने मानसिक, प्राणिक और भौतिक दावों और प्रेरणाओं की सेवा के लिये बाहरी जीवन का एक एेसा ढाँचा खड़ा कर दिया है जो इतना विशाल, इतना जटिल है कि उसकी व्यवस्था कर पाना असंभव है, यह एक जटिल राजनैतिक, सामाजिक, प्रशासकीय, आर्थिक, सांस्कृतिक मशीनरी है, उसके बौद्धिक, संवेदनात्मक, सौंदर्यग्राही और भौतिक संतुष्टि के लिये एक सुनियोजित सामूहिक साधन है। मनुष्य ने एक एेसे सभ्यता-तंत्र की रचना की है जो उसकी सीमित मानसिक क्षमता और समझ के लिये तथा उससे भी अधिक सीमित उसकी आध्यात्मिक और नैतिक क्षमता के लिये उसे संभाल पाने और उसे उपयोग में लाने के लिए अत्यधिक विशाल है, जो कि भारी भूल करने वाले उसके अहं और उसकी क्षुधाओं के लिये एक अत्यधिक भयंकर सेवक बन गया है; क्योंकि उसकी चेतना की सतह पर अभी तक कोई महत्तर द्रष्टा मन, ज्ञान की कोई अंतर्भासात्मक आत्मा नहीं आयी है जो जीवन की इस प्रारम्भिक पूर्णता को उसका अतिक्रमण करनेवाली किसी वस्तु की मुक्त वृद्धि के लिये उपयुक्त परिस्थिति बना सके।
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